Sunday, January 25, 2015

सूँ साँ माणस गंध

सूँ साँ माणस गंध / ऋषभदेव शर्मा/
ISBN : 978-93-5104-234-1
श्रीसाहिती प्रकाशन, 303 मेधा टॉवर्स,
राधाकृष्ण नगर, अत्तापुर
हैदराबाद - 500 048
मूल्य : 300
प्रथम संस्करण : 2013

कविता के लिए 

- डॉ. देवराज 

कविता से गायब होते आदमी, पेड़, मौसम, गाँव और देश की खोज में दिन-रात जंगल के एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ते सपनों की भाषा रचने की कोशिश में जुटे कवि की अभिव्यक्ति ‘सूँ साँ माणस गंध’ में बसी है| इन कविताओं में कहीं एक जिजीविषा है, जो अकेले ही दूर-दूर तक फैले युद्ध के खिलाफ खड़ी है| उसकी आवाज़ में काल और परिस्थितियों के मलिन तर्कों के सूखे-उजाड़ खेतों में पड़ी दरारों से सवाल करने की भरपूर ताकत है| वह पहाड़ और घाटी के बीच पनपे अपनापे को अपने छोटे-छोटे शावकों की नन्हीं-नन्हीं चोंचों में दानों की शक्ल में रखती चिड़िया के साथ मनुष्य को बचाए रखने के संघर्ष में शामिल है| उसके साथियों में सबसे ताकतवर घास का वह सूखा तिनका है, जिसे एक किसान इसलिए गुड़ खिलाना चाहता है कि उसके घुटनों में कड़ापन आए और वह अपने पैरों पर खड़ा होकर कुछ दूर तलक चल सके| जाड़े, गर्मी और बरसात को सिर हिला-हिला कर पढ़ती हुई भूख भी इसी की सहचरी है, इसीलिए तहखानों से आने वाली हवाएँ इसे देखते ही भयभीत हो उठती हैं| कवि ने इसे अर्जित नहीं किया है| यह उसकी दाद-इलाही है, इसीलिए वह इसे कभी महसूस नहीं करता, जबकि शुरू से इसी के सहारे जिए चला जा रहा है| उसकी ये कविताएँ ऐसे ही जीवन के साथ आत्मीयता भरा रिश्ता जीने को कह रही हैं| निर्णय हमें करना है, कविताओं को नहीं, कवि को भी नहीं!...........

इन कविताओं में कहीं एक विश्वास है, जो परीलोक से नहीं आया है, बादलों के पानी की तरह इसी धरती पर बरस कर चीह्नी-अनचीह्नी आकृतियों के पाँवों में चुपचाप लिपट गया है| उसे ऐसे पत्तों की तलाश है, जिनके हाथों में अपने ही समय को अंधा बनाने के लिए साजिशें इंतज़ार न कर रही हों| वह सदियों से यहाँ-वहाँ घूम रहा है, मगर उसकी आँखों का खालीपन अभी तक पूरी तरह रीता नहीं है| उसे एक के बाद एक अनगिनत सवाल परेशान कर रहे हैं| वह किसी खरगोश का साथ देना चाहता था, मगर अब उसे ही मार डालने की सोचने लगा है| इस बदलाव से जो सवाल पैदा होता है, उसकी शक्ल बेहद परेशान करने वाली है, फिर भी वह उसका सामना करते रहने को तत्पर है| नया साल, जनतंत्र, छब्बीस जनवरी, संक्रांति, देश, प्रभात, जीवन, मृत्यु जैसी असंख्य ध्वनियाँ कभी-कभी उसे अपनी नसों में तेजी से बहती हुई अनुभव होती हैं| इनके साथ झरनों की तरह आकाश को चुनौती देते हुए वह किसी मुक्ति-पर्व को संभव बनाना चाहता है| उसकी यह इच्छा फिर से सवालों के शोर में कोहरे की बौखलाहट से घिर जाती है| कवि की बेचैनी लगातार करवटें बदल कर असहनीय दर्द में तब्दील होती रहती है| उसकी नींद कभी रात से और कभी दिन से रिश्ता जोड़ कर अपने को बचाए रखने में जुट जाती है| कवि के सवाल न नींद से आँखें चुराते हैं और न दर्द से| यह हमेशा से इतिहास के अपारिभाषेय होने की त्रासदी है| यह कब तक केवल कवि को अभिशापित करती रहेगी? हमारे पास तक इसके जलते मांस की चिड़ायंध भी कभी पहुंचेगी या नहीं? सावधान हमें हो जाना है, इससे पहले कि हममें से किसी को या फिर सभी को पिंजरे में बंद करके चूहे की मौत दे दी जाए और पूँछ पकड़ कर नालियों के किनारे फेंक दिया जाए|...........

इन कविताओं में एक रचना जगदीश सुधाकर के लिए भी है| यह दोस्त के लिए और उससे कहीं अधिक अपने लिए दोस्त की तलाश है, शायद इसी कारण इसमें दोस्त कहीं दिखाई नहीं देता, उसकी तब्लक बत्तीस हर जगह मौजूद है| दोस्त भी तब्लक बत्तीस में ही है, वहाँ खतौली की सडकों पर देर रात तक यों ही घूमते हुए हम सब दोस्तों की पूरी दुनिया है| वहीं एक किसान है, जिसने सन तिरासी की अठारह जनवरी को खेत में अन्य किसानों के बीच कविता पढ़ने के बाद खुश होकर इस संग्रह के कवि को पाँच रुपए का नोट अपने फटे कुर्ते की जेब से या पता नहीं, धोती की फेंट से निकाल कर वार-फेर की शैली में दिया था| याद आ रहा है कि उस किसान ने एक दूसरे कवि की कविता में लाजो के उरोजों को पसंद नहीं किया था| वह दूसरा कवि शहराती भदेसपन का घोर बीमार था और सोचता था कि बेपढ़ा किसान लाजो का नाम आते ही फड़क उठेगा, मगर वैसा कुछ नहीं हुआ| कविता की समालोचना का यह किसानी मूर्त रूप किसी साहित्य-कुंभ में कभी दिखाई नहीं दिया| एक किसान ब्रेंडेड-समालोचकों के लिए आज तक चुनौती बना हुआ है, कविता में, आलोचना में और सच कहा जाए, तो जीवन में भी| जगदीश सुधाकर भी जन-कवि के रूप में चुनौती ही हैं, अपनी संपूर्ण भावुकता और गुस्से के बावजूद एक अटल चुनौती..........

यह कवि अपनी कविता के माध्यम से हर बार एक नई हवा लेकर सामने आता है| इस बार इस हवा में लोक-जीवन की भाषा का हस्तक्षेप पहले से कहीं अधिक है| कविता में ऐसी बेलौस और निजी भाषा का लौटना हमारी जातीय चेतना के लिए शुभ संकेत है|........

29 जून, 2013 
-देवराज 
अधिष्ठाता, 
अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ,
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,
गांधी हिल्स, वर्धा – 442 005